सुना था , ठोकर खाने के बाद ही संभलना सीखते हैं ,
पर क्या एक सीख के खातिर ठोकर खाना ज़रूरी है ?
कहते हैं की हार के बाद ही जीत है ,
पर अगर ये हार आंखरी हुई तो ?
ऐसी सीख का क्या फायदा ?
क्यों न कुछ ऐसा करें की ठोकर लगे ही ना ,
क्यों ना ऐसे लड़े की हार मिले ही ना |
एक अदद सीख की कीमत ,एक चोट ,एक हार , क्या ज्यादा नहीं ?
सीखना ही है तो सीखो किसी और की हार से ,किसी और की चोट खाने से |
क्या फायदा उस सीख का जो मिलेगी अपनी जान गवाने से |
पर शायद यही सच भी है ,
क्यों कि मैंने भी सीखा है ,
अपनी ही चोट से ,अपनी ही हार से |
पर मैं भी कब तक हारता रहूँ ,कब तक चोट खाता रहूँ ?
लड़ाई एक तरह की ही हो तो मैं कुछ सीखूं |
यहाँ तो हर पल एक नई जंग छिड़ती है ,
हर क्षण एक ठोकर लगती है |
तो क्या मैं घायल होता रहूँ , बस ये जानने के लिए की संभलते कैसे हैं ?
और हारता रहूँ जीत के एक सबक के लिए ??
Bahut Badhiya yogesh... Sundar likha hai... badhai... isi tarah sochte raho aur likhte raho.....
जवाब देंहटाएंgud keep it up..
जवाब देंहटाएंAcchaa Pryash......lekhna jaari rakhieyga..ye gujarish hae
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